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मवेशियों की प्रार्थना / हेमन्त कुकरेती
Kavita Kosh से
पहाड़ झड़ गये हैं अपनी शाखों से
पेड़ों की जड़ों के नीचे सुलग रही है आग
पृथ्वी के गर्भ में सदा के लिए
सोने की सोच रहे हैं झरने
बीज बनने की जगह पर उग आया है
पथराया शोर
कहाँ जाएँ हम
हवाएँ भी बैठ गयी हैं छुपकर
रोक दी गयी हैं दिशाएँ
रात की तरह काट रहे हैं हमें
हमारे पैर
लोहे की तरह बज रहे हैं जंगल
बस कुछ ही देर है
गड्ढे में बैठ जाएगी धरती
गिर रहे हैं पीले पत्ते
आँखों में खुल रहे हैं रेत के मैदान
आज के बाद केवल शीशों में मढ़े मिलेंगे
साबुत पहाड़...