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मसीहा उंगलियां तेरी.... / ज़फ़र गोरखपुरी
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शरीके–हयात<ref>जीवन संगिनी</ref> किताबुन्निसा के नाम
मुझे इक बोझ की सूरत
उठाकर शाम कांधे पर
जब अपने घर पटक देती है लाकर
तेरे होठों की ज़िंदा मुस्कराहट
उठाती है मुझे
कहती है आओ
तुम्हारा बोझ पलकों पर उठा लूँ
सब अच्छा है
सभी ने घर में खाना खा लिया है
बघारी दाल, सोंधी रोटियाँ, आलू की सब्ज़ी, गर्म चाय
और उससे भी बहुत मीठा तेरा अंदाज़े दिलदारी
तेरी मानूस<ref>जानी पहचानी</ref> ग़मख़ारी
हथेली तेल बनकर जज्ब़ हो जाती है मेरे गर्म सर में
समा जाती हैं बालों में मसीहा उंगलियां तेरी
मुझे महसूस होता है
मेरे बिखरे हुए आज़ा<ref>बदन के हिस्से</ref> दुबारा जुड़ गए हैं....
शब्दार्थ
<references/>