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महंगे–सस्ते / भवानीप्रसाद मिश्र
Kavita Kosh से
एक तरैया देखी जब
पांच ब्राहान न्योते तब
अरसराम, परसराम
तुलसी, गंगा, सालगराम!
अरसराम खाएँ अरसे तक
परसराम खाएँ परसे तक
तुलसी, तुलसीदल पर रहे
गंगा, गंगाजल पर रहे!
मगर अनूठे सालगराम
रहें ताकते सबके काम
इसका खाना उसका पीना
यही बन गया उसका जीना
पांच पांच भी सस्ते पड़े
पुन्न सहज मिल गए बड़े|