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महानगर / गौतम-तिरिया / मुचकुन्द शर्मा

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महानगर में फैलल बड़का कंकरीट के जंगल,
कजै प्रदर्शन धरना देखलों राजनीति के दंगल।
अइलों सुबहे के गाड़ी से अभी हो रहल शाम,
महानगर में जजै तजै है पूरा चक्का जाम।
ग्रीष्म ताप में झुलसावे हे कजै न कोई छाया,
रहन-सहन पूरे बनावटी अजब गजब हे माया।
शांति-सुहागन कहिया भागल इहाँ सगर है शोर,
फैलल हे ई कई मील में अता-पता नय छोर।
लंद-फंद के ई दुनिया में लोग बनल गुमनाम
कत्ते के कुछ काम मिलल हे, कत्ते हे बेकाम।
बिजली पानी समय-समय पर गर्मी में बेहाल,
अपनापन के यहाँ पड़ल हे सबसे बड़ा अकाल।
झुग्गी-झोपड़ पट्टी में कचबचा रहल हें लोग
अस्पताल है बहुत बहुत सा तैयो फैलल रोग।
आसमान के चूम रहल हें कतना भव्य इमारत,
कभी-कभी गिर जाहे तो सब कुछ हो जाहे गारत।
महानगर में कजै गंदगी कजै उघारे नाला,
रहिया सब होशियार कजै ठग से पड़ जैतो पाला।
सत्ता कुर्सी के खातिर सबके शतरंजी चाल,
लूट रहल हंे महानगर में कत्ते आके माल।
भागदौड़ से भरल जिन्दगी, कजै न हे आराम,
महानगर से अच्छा अप्पन शहर गाँव के धाम।