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महानगर का जीवन / अनुक्रमणिका / नहा कर नही लौटा है बुद्ध
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शैशव बीता गर्भ में
जनम लिया इन्क़िलाब ज़िन्दाबाद कहते
देखने वाले आँखें मूँद हँसते थे
अधेड़ होना शुरू हुआ जब दो-एक साल बाद
अपराधबोधहीन संचालन-केन्द्र नाभि के नीचे आया
जैसे पहली बार समुद्र देखने पर जमा आतंक
सच हो गया हो
इस तरह बिखरने लगे चट्टान जैसे दोस्त
जीने लगे हम ऐनी आपा के उपन्यास
अधेड़पन के बुढ़ापे में बदलने का पहला एहसास
सुजाता से बातें करने पर हुआ
टूटने से बोझिल मन और शरीर एक साथ असुन्दर
बहुत परेशान थी प्यार करने का वक़्त नहीं था
जगह की माँग तब से करते रहे
फिर महीने-दर-महीने
कभी बीमार कभी यूँ सुस्ती में दीवारों से गुफ़्तगू
लिखता रहा महानगर
विकल्प बचा था समुद्र का आँखों तक चढ़ आना
सुजाता खड़ी है खीर भरा थाल लिए
नहा कर नहीं लौटा है बुद्ध।