माँ/ शम्भुनाथ तिवारी
एक
माँ,
एक ऐसा शब्द,
जो महज एक शब्द ही नहीं,
बल्कि है पूरा का पूरा संस्कार
और जिसे बोलनेमात्र से
तर हो जाता है कलेजा,जुड़ा जाती है छाती।
माँ,
इस शब्द के छलकते स्नेह का
एक एक कतरा
बन जाता है कीमती धरोहर
अनमोल थाती।
माँ,
जब भी निकलता है
जुबान से यह शब्द
दे जाता है
एक बहुत गहरा अहसास
उसकी प्रेम-पगी चासनी में
घुल जाता है रग-रग
महक उठती है
एक-एक साँस
माँ,
कहते ही
ऐसा लगता हैजैसे सब कुछ शांत हो गया हो
शां—त परम शां—त
उस शांति की व्याप्त नीरवता में
गूँजती है केवल
एक मूक प्रतिध्वनि
माँ—माँ—माँ!
दो
पहले
मैं शहर से गाँव
जल्दी जल्दी जाता था
पहुँचते ही
घर के ओसारे में
सबसे पहले
दिखाई दे जाती थी माँ
वह अपने हाथों में लेकर सूप-छलनी
फटकती रहती थी
चावल-गेहूँ-धान-सरसों ---
जिससे निकलती रहती थी
एक लयबद्ध ध्वनि,
छपाक-छपाक -छप-छप-छपाक
माँ
मुझे देखते ही
अपने माथे पर लटके हुए
पल्लू को खींचकर
माँ पोछती थी माथे का पसीना
फिर चेहरे पर बिखेरकर
अकृत्रिम सरलतावाली निश्छल हँसी
मेरी ओर ताकने लगती
चुपचाप टुकुर – टुकुर।
इस चुप्पी में भी मानो
वह कह रही है –
“मेरी बाईं आँख फड़क रही थी
मेरा मन कह रहा था
कि आज मेरा बबुआ जरूर आएगा।”
मैँ गाँव
अब भी जाता हूँ,
पर कभी-कभार।
घर पहुँचते ही
ओसारे में अब नहीं सुनाई देता है
वह लयबद्ध संगीत।
वह सूप-छलनी
ओसारे में एक किनारे खूँटियों पर लटक रही हैं
उन्हें छूकर लगता है
वे कभी माँ के हाथों के खिलौना थे।
घर में बिखरी हैं
माँ की तमाम यादें
दीवारों पर जगह-जगह
खँचि हुए काजल पुते उँगलियों के निशान
जिन्हें वह डिठौना लगाने के बाद
उन्हीं दीवारों में पोंछ दिया करती थी।
ताख में रखी
माटी की ढिबरी
जिसे रोजाना साँझ को
माँ उसे चूल्हे से जलाती और उसे
अपने अँचरा से ढाँपकर
आले तक आहिस्ता-आहिस्ता ऐसे लाती,
जैसे उसे हवाँ की नजर लग जाएगी।
आँगन में
दो मुहाँ माटी का चूल्हा,
जिस पर एक तरफ
पकती रहती थी दाल
दूसरी ओर
तवे पर
माँ की उँगलिओं के इशारे पर
घूमती और फूलती हुई
एकदम गोल-गोल रोटियाँ
अब उन उँगलियोंवाली
रोटियों के स्वाद कहाँ...!
घर में सब कुछ है,
माँ को छोड़कर!!
अब अक्सर सोचता हूँ
घर का मतलब क्या होता है?
मन अनायास कह उठता है–
माँ—माँ – सिर्फ माँ!!