माँ के लिए / संजीव कुमार
वह जो
बहता है खून बनकर
सिर उठाता है विचार की तरह
धरता है पग विश्वास की दृढ़ता से
दुर्जन के मन के भय की तरह
टोकता है अनजाने पथ पर निरंतर
वही है
जिसे आश्वस्ति की बूंदो के साथ
तुम्हारी छाती से लगकर
मिलाया था तुम्हारे ही खून में।
मां
जीवन की अलक्ष्य दृष्टि
प्रकृति के उद्दाम वेग की धारा में
बहती जाती है बहती जाती है
मन लेकिन तुम्हारी गोद में बैठा हुआ
आज भी टटोलता रहता है
उष्ण वक्ष और थपकते हाथ को
कि नींद आये लेकिन
गर्म जिस्म की संवेदना खोये नहीं
तुम्हारी संतति
आज भी उसी क्षमाशील परिचय
की मोहताज है मां।
जिन हाथों में
रखा तुमने बने वे भी सम्बल
और वे भी जिन्हें जना तुमने
ऋण उतारने की मेहनत करते हुये
तुम्हारे गीत दोहराये जाते हैं
तुम्हारे दूध ने फिर एक रूप पाया है
मैं उसे सौंप रहा हूं
आश्वस्ति, कल्पना और सुख का
तुम्हारा बांटा गया प्रसाद
एक और मा के
धारोष्ण, ताजे टटके दूध के साथ।