माँ को याद है... / प्रेमरंजन अनिमेष
माँ को अपना जन्मदिन याद नहीं
उसे याद है दूध का हिसाब
याद हैं धोबी को दिए जाने वाले कपड़े
याद हमारी स्कूल-फ़ीस
ख़ूब अच्छी तरह याद
पिताजी की चाय में चीनी का अनुपात
बस अपना जन्मदिन ही याद नहीं
पूछने पर
वह बैठ कर
सोचने लगती
और हमें लगता
उसे याद आ रहा
लेकिन उसे याद आ जाता
चूल्हे को खोरना
रसोई का खुला रह गया दरवाज़ा
या समय किसी के आने का
उलट-पुलट कर देखता सारी चीज़ें
वे कहानियाँ जो उसने सुनाई हैं
सब डिब्बे जिनमें क्या-क्या रखा है
डायरी जिसे खर्च के हिसाबों ने
पाट दिया है
कहाँ भूल आई वह
कहीं चूल्हे की आँच में तो नहीं जला आई
धोने-खँगालने में तो नहीं गला आई
साफ़-सफ़ाई करते
रद्दी में तो नहीं मिला आई
असहाय सा झुँझलाता
फिर इतनी अच्छी तरह
क्यों याद है जन्मदिन मेरा
वह उसे भी भूल जाए
देकर बड़ा कोई वास्ता
आख़िरी बार पूछता
माँ से जन्मदिन उसका
और मुसकुराहट के साथ
बतलाती वह एक तारीख़
जो मेरा जन्मदिन
अविश्वास से देखता उसे
दिखलाता गुस्सा
कि यह क्या जवाब हुआ
मैं पूरी गम्भीरता से पूछ रहा
लेकिन शान्त और संयत
वह कहती उसी तरह
यह सच है, हाँ, सच यही
जिस दिन हुआ जन्म तुम्हारा
उसी दिन जन्मी तुम्हारी माँ भी
उससे पहले तो मैं
कुछ और थी
माँ शायद ठीक कह रही -- सोचता हूँ
मगर मरना भी तो पड़ता है
फिर जन्म लेने से पहले
बताओ माँ... फिर से पूछता
दो जन्मों के बीच कुछ मरा भी तो होगा ?
चुपचाप खड़ा आँखें उसकी देखता
जो धरती आकाश की ओर होती
रसोई की आग की ओर लौटेंगी
उसे सब याद है
सब कुछ
पूरा पूरा...!