भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मांस की हथेलियों से / हरीश भादानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मांस की हथेलियों से पीटे ही क्यों
जड़ाऊ कीलों के किवाड़
खुभें ही
रिस आया लहू झुरझुराया मैं
कितनी दुखाती है जगाती हुई यह नींद
पोंछा है खीज कर
फटी कमीज से इतिहास
अक्षरों की छैनियों से तोड़ने
लगा हूं
मेरे और मेरी तलाश के बीच
पसरा हुआ जो एक ठंढ़ा शून्य