माहिए (181 से 190) / हरिराज सिंह 'नूर'
181. चलती ही चली जाए
साँस की जब गाड़ी
तो मौत को तड़पाए
182. रखवाला ज़माने का
सुनता नहीं मेरी
क्या होगा फ़साने का
183. आया था कभी गाँधी
‘राज’ हिलाने को
आती है कि ज्यूँ आँधी
184. अवगुण से हुए दुर्बल
तुम में अगर ताक़त
क़ब्ज़े में करो जल-थल
185. विपदाओं ने घेरा है
कोई नहीं अपना
दुख-दर्द का डेरा है
186. दुनिया ये जो तेरी है
हश्र बुरा होगा
बारूद की ढेरी है
187. ख़तरे ही नज़र आएं
राह में जब हमको
ऐसे में किधर जाएं
188. अफ़सोस ज़ियादा है
वो न तुझे भाया
जो मेरा इरादा है
189. तूने जो गढ़ी मूरत
ख़ूब ज़माने में
उससे ही बढ़ी इज़्ज़त
190. यूँ मुझको न कम तोलो
आज का इन्सां हूँ
कल पर न मिरे बोलो