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मिट्टी के प्यार में / दिनकर कुमार
Kavita Kosh से
मिट्टी के प्यारे में
तिल-तिलकर जलता है जीवन
बारूद की गन्ध से
बौराती है हवा
मतपेटियों से बाहर
निकलता है
अपाहिज भविष्य
नपुंसक वर्तमान का सिर
घुटनों के बीच झुका रहता है
अध्यादेशों से
सुलगते नहीं चूल्हे
अधिनियमों से
बुझती नहीं भूख
संविधान के सपने
देखते हुए
पीढ़ियाँ खप जाती हैं
संविधान के आदर्श
महलों में
मुखौटे पहनते हैं
मिट्टी के प्यार में
मिट्टी के पुतले
सोने जैसे जीवन को
मिट्टी में मिलाने से
नहीं हिचकते ।