मित्र लीला (स्वविषय) / शब्द प्रकाश / धरनीदास
साँचे कर्त्ता करै सो होई। औरो समुझै कछु मति कोई॥
चारों युग प्रभु की प्रभुताई। संत सरुपे भक्ति दृढ़ाई॥1॥
आगे उपजै भक्त घनेरे। पद परमार्थ कीन बहुतेरे॥
तिनको नाम कहाँ लग धरिये। शीश नवाय दंडवत करिये॥2॥
परशुराम और विरमा वाई। जिनके गैर्बा प्रगटे आई॥
विप्रन देखा ग्रंथ विचारी। जन्म पत्रिका लिखो सुधारी॥3॥
यह बालक होइहै दिरघाई। बहुत लच्छिमी लोक बडाई॥
विद्यावंत सुबुधि सुर ज्ञानी। दाता दुखी-सुखी सनमानी॥4॥
वेद विचारि नाम ठहराया। धरनीधर को मीत सुनाया॥
आगे एक समय अस होइहै। भेस पकरि हरि-भक्त कहैहै॥5॥
पंडित कही सही भौ सोई। वेद भेद नहि मिथ्या होई॥
लिखि परवानाजा दिन भयऊ। ता दिन कृपानिधि कयऊ॥6॥
सोवत नींद मीत चलि आये। माथ हाथ दे लाय जगाये॥
माला तिलक प्रगट पहिराया। तुरिय भक्ति हिदु करकरि माया॥7॥
इतना शब्दश्रवन जब सूना। मानो लाभ मिलो दश गूना॥
चिहुँकि उठे तब नयन उघारा। आप अलोपी बोलनिहारा॥8॥
देखि दशा तन हृदय हुलासा। ता छन अनुभव भौ परकासा॥
लोकचारको मारग छूटो। मोह मयाको बंधन टूटो॥9॥
साधु-कि संगीत पंगति पाया। प्रेम बढो परिचय भौ काया॥
प्रभुसाँ प्रीति निरंतर लागी। भर्म भुलानो शंसय भागी॥10॥
पूरन ब्रह्म सकल घट देखा। कीरी कुंजर एकै लेखा।
जो जैसो भावन करि जाना। ताको तैसा भा परवाना॥11॥
जो नर दिव्य दृष्टि करि चीन्हो। काज भलो अपनो कर लीन्हो॥
चर्म-दृष्टि नर जो अखअभिमानी। सन्तन-महि मा तिन नहि जानी॥12॥
जग जंजाली जानत नाही। धरनी घर साँ करो मिताई।
जो नर चाहो आपु भलाई। धरनीधर साँ करो मिताई॥13॥
दूर करो व्रत देई देवा। करिलेहु धरनीधर की सेवा॥
धरनीधरसाँ ध्यान लगावै। सो नर निश्चय दर्शन पावै॥14॥
धरनीधर को लेय जो छाया। ताकी देह होय निः पापा॥
धरनीधर की आरति वारी। जन्म जन्म को पातक जारी॥15॥
धरनीधर को सुमिरन करई। ताको संकट कबहुँ न परई॥
धरनीधर की अस्तुति जाँहा। सकल अनंद कंद नित ताँहा॥16॥
धरनीधर दास प्रचारी गाई। अपने मीतहिँ बलि बलि जाई।
जो जन मित्र महात्म्य गावै। विनशै पाप परम गति पावै॥17॥