मुँडेर पर कविताई / विमलेश शर्मा
पंछी गा रहे हैं
आसमां रक्ताभ
और अरावली की गोद हरी-भरी है
देखो तुम भी इसे
ग़र समय मिल ही जाए
और नहा लो सुगंधों की बरसात में
हर रोज साँझ पड़े यह सोचना कि
साहित्य, सभ्यता और संस्कृति से पहले
टूटन सहेजनी ज़रूरी है
इसलिए कविता को बचाने की कोशिश से पहले सु-क-वि !
कोशिश करना कि बची रहे गौरैया
बची रहे शाखें
जहाँ वे सीमाओं का सफ़र तय कर सुस्ता सकें
बेखौफ़!
कोशिश करना कि
बचा रहे वो आँगन
जहाँ पँछियों के लिए दाना-पानी
भोर के नित्य कर्म की तरह
रख दिया जाता है
घर की मुँडेर पर!
सुनो कवि
कविता की चिंता से पहले
चिंता करना गौरैया की
उस आस-पड़ौस की
जहाँ समाज बनता है
चिंता करना बंजर होती ज़मीन की
जहाँ किसी के घर उगा करते थे
और साँसें शाख़ों पर फलती थी!
कविता ख़ुद-ब-ख़ुद बच जाएगी!