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मुँह पर उँगलियाँ / रेखा चमोली
Kavita Kosh से
ये वक्त है बेआवाजों का
हर वक्त की तरह ये भी
शक्ति और सत्ता की तरफ मुँह करके खड़ा है
कुछ मानक, कुछ आँकड़े, कुछ सीमाएँ
तय करके
ये वक्त बिखर जाएगा
समान रूप से यहाँ वहाँ
ठीक उसी तरह जैसे सर्दी या गर्मी
किसी की सुविधा-असुविधा देखकर नहीं आती
बरसातें टूटी छप्परों पर भी
उतनी ही तेजी से बरसती हैं।
ये घुसपैठिया वक्त
जबरन थमा देता है
अनचाही सौगातें
और तरसाता है
एक घूँट जिंदगी को
मनमानी और चुप्पी के इस वक्त में
सवाल पूछने की इजाजत नहीं।