मुक्ति-मार्ग / शब्द प्रकाश / धरनीदास
चारोँ युग सत-गुरुकी महिमा, जो सत-पंथ बतावै।
काटै तिमिर करै उँजियारो, शंसय सकल मिटावै॥1॥
कर्त्ता राम आदि है सबको, युग अनन्त को राजा।
मूल मंत्र अस्थूल शब्दते, सकल सृष्टि उपराजा॥2॥
धरती गगन पवन औ पानी, आनि अगिन उपचारा।
त्रिगुण मिलाय जीव शिव-मंदिर, रचो विविध परकारा॥3॥
जरेज उद्भिज अंडज उष्मज, जीव रचो मुख जानी।
और अनेक रचो अस्थावर, कहि न जाय मुख वानी॥4॥
महि मंडल मानुष की देही, सब ऊपर अधिकारी।
प्रेम बढ़ावे दर्शन पावे, ताते परम पियारी॥5॥
जो निज ज्ञान ध्यान लौ लावे, सो निज प्रभुहिँ समाना।
जो संसार-भरम वन भूला, करम काठ अरुझाना॥6॥
पुनि 2 आवत जात जगत मेँ, चढ़े चरख चौरासी।
कर्म डोर गुड्डी तन बाँधी, उलटि गगन किन जासी॥7॥
मानुष मिलन चहे कर्त्तासोँ, मूलध्यान विसाराया।
ढूँढत फिरत जहाँ तँह जग में, फिरि फिरि भटक खाया॥8॥
कोइ ढूंढ़त है कर्म-योग करि, धोती नेती नेवारी।
प्राणायाम पवन कोइ साधेँ, करत भु अंगम भँवरी॥9॥
कोइ आथर पाथर मेँ ढूँढै, कोइ अग्नी जल पासा।
कोइ गुफा सोफामेँ कलपै, भूखा और पियासा॥10॥
कोइ कुरान पुरानहि ढूँढै, कोइ ब्रह्म-आचारी।
कोइ विदेश वन खंड दंड धरि, त्यागि सुता सु नारी॥11॥
कोइ शिर जटा बढ़ाय बघम्वर, अंग छार लपटावै।
नंगा मौनी दूधाधारी, बाँह उठाय सुखावै॥12॥
कोइ शिर टोपा टोपी धरिकै, वांवार ठगावै।
कोइ कंथा करि पंथा जो है, मुद्रा कान पेन्हावै॥13॥
लोकाचार तुरुक विन्दू जत, करत वरत और रोजा।
एतना ढूँढ़ि कहो किन पाया, जिन तन मन नहि खोजा॥14॥
कया-देव-घर देव निरंजन, प्रभु जोती परकासा।
पाँच तत्त्व गुन तीन तहाँ पर, करत पचीस निवासा॥15॥
उदधि सरस्वति गंगा यमुना, चाँद सूय वस काया।
मेरु दंड षट् चक्र अष्ट दल, कमल कथा ठहराया॥16॥
इडला पिडला सुषुमन सोधे, वंक नाल तिल द्वारा।
घाट त्रिवेनी वाट उनमुनी, स्रवे सुधा-रस धारा॥17॥
सोरह खाँई दस दर्वाजा, बावन वनो कंगूटा।
बारह खंड बहत्तर कोठा, कया भव भर पूरा॥18॥
काया मेँ वैकुंठ नर्क है, दोजख बहिश्त कहावै।
तैंतिस देव योनि चौरासी, अटसठ तिरथ अन्हावै॥19॥
चार परि चौदह खजजादे, चार पियाला सूझै।
काया मेँ महजीद मुहम्मद, मोलना होय सो बूझै॥20॥
अष्ट सिद्धि नौ निधि काया में, चार पदारथ सोऊ।
जगमे जीवन मुक्ति कयामत, युक्ति लखावै कोऊ॥21॥
सब घट एक ब्रह्म जिन जानो, तके निकट दयाला।
जाके जियमेँ जीव-दया नहि, तिन अपनो घर घाला॥22॥
मुक्ति-मार्ग संतन ठहराया, गुरु परसादे पाया।
धरनी अवर उपाय मिले नहि, जो धरनी पर धाया॥23॥
मुक्ति को मारग कहे, कहावै सुने सुनावै गावै।
धरनी प्रेम करे जो प्रानी, अवशि परमपद पावै॥24॥