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मुझको लगता है क्यों अजब तन्हा / हरि फ़ैज़ाबादी
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मुझको लगता है क्यों अजब तन्हा
जबकि संसार में हैं सब तन्हा
वो भी मजबूर आज है वरना
छोड़ा उसने था घर को कब तन्हा
कह दो इन अनगिनत ख़ुदाओं से
कल भी था आज भी है रब तन्हा
बस मुझे ही नहीं मुसीबत में
भारी लगती है सबको शब तन्हा
आज सब कुछ बदल गया लेकिन
मौत का है वही सबब तन्हा
क्या तुम्हें देती है ये तन्हाई
रहते हो जब भी देखो तब तन्हा
मेरी ग़ज़लों से बात तुम करना
ख़ुद को महसूस करना जब तन्हा