मुट्ठियों से
रेत जैसी
झर रही है ज़िंदगी
वक्त
बहती इक नदी का
अनवरत सा
सिलसिला है
एक तट को
छोड़ते ही
बढ़ के
दूजे से मिला है
संग मिलन के
इक विदाई
धर रही है ज़िंदगी
कौन-सी शै
कब यहाँ और
कब तलक
कायम रही
जो अभी है
कल न होगा
सच में
सच है बस यही
ज़िंदगी भर
जैसे जादूघर
रही है ज़िंदगी