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मुट्ठी भर रोशनी / अमरजीत कौंके
Kavita Kosh से
सब कुछ खत्म नहीं हुआ अभी
शेष है अब भी
मुट्ठी भर रोशनी
इस तमाम अँधेरे के बावजूद
खेतों में अभी भी
लहलहाती हैं फसलें
पृथ्वी की कोख
अभी भी तैयार है
बीज को पौधा बनाने के लिए
किसानों के होठों पर
अभी भी
लोक गीतों की ध्वनियाँ नृत्य करती हैं
फूलों में लगी है
एक-दूसरे से ज्यादा
सुगन्धित होने की जिद
इस बारूद की गंध के खिलाफ़
शब्द अपनी हत्या के बावजूद
अभी भी सुरक्षित हैं कविताओं में
और इतना काफ़ी है।