मुसलमानों की गली / संदीप निर्भय
आज वह शहर की उस गली में गया
जहाँ जाने से लोग अक्सर कतराते हैं
पान की गुमटी में बैठी एक बुढ़िया
पढ़ रही है उर्दू की कोई किताब
उसके मुँह से निकलने वाले हरफ़
दौड़े जा रहे हैं इबादत के घोड़े पर सवार होकर
मस्जिद के पास एक चबूतरा है
वहाँ बतिया रहे हैं बुज़ुर्ग लोग
चुग रहे हैं पखेरू दाना
जैसे सभी मज़हब के ख़ुदा हुक्का पीते हुए
धरती, गेहूँ और बाजरे के दानों से बतिया रहे हों
बग़ीचे की ओर तनी तोप की नाल में
चूजो ने खोली हैं चोंच
छेड़े हैं तोप के विरुद्ध गीत
रहीम चाचा गाय दुहते वक़्त कह रहे
कि दसेक दिन की बछड़ी
मर गई थी कल रात
फिर भी बेचारी
लात नहीं मारती, दो बखत धार देती है
अनबोल जीव किससे कहे अपना दु: ख
कुछेक औरतें बना रही हैं लाख की चूड़ियाँ
कछेक रंग रही हैं ओढ़ने
कुछेक कर रही हैं कढ़ाई
कुछेक गोबर थापती
सुना रही हैं उपलों को जीवन की वर्णमाला
जब माँएँ बच्चों की हथेलियों-पगथलियों पर
बना रही होती हैं काजल का चाँद
तब दरगाहों से खड़े होकर
पीर-फकीर धूल झाड़ते हुए
आकर बैठ जाते हैं
बच्चों की हथेलियों पर मारकर पालथी
उस वक़्त ऐसा लगता है
कि बच्चों की हथेलियों में रचा-बसा हो समूचा गाँव
सुनों,
अभी-अभी मुसलमानों की गली में
छेड़ी है किसी भोप्पे नें रावणहत्थे पर 'तालरिया मगरिया' की धुन!