भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरा 'अपनापन' / अमृता भारती
Kavita Kosh से
मैंने
अपनी उपस्थिति का अर्थ
इन दरख़्तों के बीच
कितनी देर में जाना
जो कटकर भी लकड़ी नहीं बनते
और जमे रहकर भी वृक्ष नहीं --
कितनी देर में आई वह आवाज़
उस घर से
जहाँ मेरा न होना
ख़ुद मुझे ही मालूम नहीं था ।
एकान्त अपना कैसे हो सकता था
जबकि आसपास इतने लोग थे
बातें करते हुए
इधर से उधर, उधर से इधर
मुझे उठाते रखते हुए --
एकान्त अपना कैसे हो सकता था
जबकि
पैरों के व्रण
और हृदय की आग में
लम्बा फ़ासला था --
दरख़्त
जो कटकर भी लकड़ी नहीं बनते
और जमे रहकर भी वृक्ष नहीं
न घर हैं
न जंगल ...
पर अब लगता है
कहीं कोई काट रहा है
मुझे
मेरे अन्दर
अपने एकाकी मौन में
शायद वह --
जिसने एकत्रित किया था
आकाश की थाली में
मेरा 'अपनापन'।