भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरा होना बना रहेगा / प्रताप सहगल
Kavita Kosh से
अब आप मुझे बाहर नहीं कर सकते
मैं न रहूँगा
आपके कमरे में
एक किताब बनकर
आपकी मेज़ पर सोया रहूँगा
या आपकी
गाड़ी की पिछली सीट पर
सेंकता रहूँगा
सर्दियों की धूप
और सुनता रहूँगा
आपकी बातें
या कोई ग़ज़ल
या
कोई संगीत की तान
नहीं सुनूँगा ख़बरें
वे तब भी वही होंगी
जो आज हैं
पर सुनूँगा ज़रूर
आपकी बातें
बोलूँगा ज़रूर
आपकी ज़बान पर चढ़कर
आप चाहें भी तो
अपनी ज़बान से
नहीं फेंक सकेंगे
गाड़ी से बाहर
सुनेंगे मेरी बातें
अपनी साँसों के साथ
अब आप मुझे कैसे कर सकते हैं बाहर
अपनी दुनिया से!