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मेरी आत्मा / अरविन्द श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
तुम्हारा प्रेम मेरी धमनियों में समाया हुआ है
देखो तुम्हारे लाल रक्त कण मेरे खून से कितने
मिलते जुलते हैं
वही सांसें हैं जो घूम कर इधर-उधर आ-जा रही है
एक ही जीवन-गंध में सने हैं हम दोनों
रात के चौड़े सीने पर हम अपने एकाकी ख्यालों को ख़त्म करते है
सबेरे जो पीले फूल खिलते हैं
उसे हम छोड़ देते हैं मधुमक्खियों के लिए
रोज़ एक मज़बूत मेज़ पर
मैं अपनी आत्मा को रख आता हूँ वहां
जहां तुम्हेँ लंच लेते
देखती है वह
टुकुर टुकुर !