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मेरी गली / मृत्युंजय प्रभाकर
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मेरी गली में थानेदारी
लम्हों की बात थी
सर्द रात में भी
गर्म हो जाती थी
गली की झिटकियाँ
मुक़दमे की ज़रूरत ने
जज को दस्तक दी
या जज की ज़रूरत ने
मुक़दमा तैयार किया
यह अभी भी बहुत साफ़ नहीं है
आग अपने उसूल की पक्की निकली
गोतियारे से होती हुई
घर में ऐसा फैली
कि महीनों की
बतकुच्चन, गाली-गलौज
और मारपीट के बाद
घर की दीवारों में
कई दरवाज़े एक साथ निकल आए
फिर छाई एक रहस्यमयी चुप्पी
पर पड़ोसियों के दीवारों के भीतर
वह सनसनाहट की तरह फैलती रही
जिसका विस्फोट दिख जाता था कभी-कभार
पड़ोसियों के जिक्र के साथ
कभी-कभी लगता है
मैं किसी गली में नहीं
किसी ज्वालामुखी पर बसा था
रह-रहकर फूटती रहता था जो
अक्सर कारण-अकारण।
रचनाकाल : 22.07.08