मेरी स्वाधीनता / बालस्वरूप राही
जीवन के महक भरे स्वप्न कहां बोऊं मैं
आधे में मृत्यु और आधे में धर्म है।
कोई भी काम नहीं ऐसा जो
पुण्य हो न पाप हो
जिसको मैं करूँ सहज भाव से
जिस पर बस मेरी ही
मेरी ही छाप हो।
मन की सुन लेता तो आत्मा धिक्कारती
स्वयं तो अमर है पर मुझे रोज़ मारती
बाहर से धैर्यवान भीतर से डरा हुआ
सदा भूल जाता हूँ
जीवन का एकमात्र सत्य तो
रक्त और मांस और आधे में धर्म है।
झूठा आश्वासन है मेरी स्वाधीनता
मेरा हर अहंकार मुखरित कर देता है
मेरी ही दीनता
मैं भी कुछ ऐसे स्वच्छन्द हूँ
जैसे हो सीलभरी लकड़ी में आग
जैसे हो तर्कशील मन में अनुराग
मैं कोई राजनयिक बंदी हूँ
यों सब सुविधाएं हैं
सिर्फ नज़रबन्द हूँ।
मुक्ति का करूँ अभिनय कैसे जब
चिंतन है बिका हुआ अनुबंधित कर्म है
आधे में मृत्यु और आधे में धर्म है।
फूलों पर मुहर लगी मृत्यु की
फल सारे धर्म की नज़र में हैं
कैसे ये फल चखूं
कैसे ये फूल मेज़ पर रखूं
धर्म नहीं, धर्म के प्रचारों से डरता हूँ
मृत्यु नहीं, मृत्यु के विचारों से मरता हूँ।
रूप और गंध और रस कैसे भोगूं जब
संयम ही सारे उपदेशों का मर्म है
आधे में मृत्यु और आधे में धर्म है
जीवन के महक भरे स्वप्न कहां बोऊं मैं।