भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरे अंदर जो इक फ़क़ीरी है / अजय सहाब
Kavita Kosh से
मेरे अंदर जो इक फ़क़ीरी है
ये ही सब से बड़ी अमीरी है
कुछ नहीं है मगर सभी कुछ है
देख कैसी जहान-गीरी है
'पंखुड़ी इक गुलाब के जैसी'
मेरे शे'रों में ऐसी मीरी है
रूह और जिस्म सुर्ख़ हैं ख़ूँ से
फिर भी ये पैरहन हरीरी है
तल्ख़ सच सबके सामने कहना
अपने अंदाज़ में कबीरी है
तुझ से रिश्ता कभी नहीं सुलझा
उस की फ़ितरत ही काश्मीरी है