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मेरे कवि — 2 / तेजी ग्रोवर
Kavita Kosh से
पन्ने के उस ओर कुछ भी लिख सकते थे। इस ओर के
वाक्य कुछ मैले थे। वे फिर भी बैठे रहे, जैसे चाय बनने
में अभी देर हो।
सुपारियाँ कुतरकर वे उठ चुके थे ढेरी के पास से। खजूर
के छत्र-पत्तों की छायाएँ ज़रा सर्द थीं। नदी की बाढ़ में से
सुबह का सूर्य निश्चिन्त निकल रहा था।
उठने से उनकी देह की पीली पत्तियों की बारिश तेज़ हो
रही थी। उनके पन्नों पर उभर रहे वाक्यों में पानी था।
वे नम उँगलियों से आँखें छूकर देखते रहते थे।