भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरे गीतों को, कुहुकिनी! / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
मेरे गीतों को, कुहुकिनी! मत गाना!
इनमें हाला है, सुधा-सी जो लगती,
ऐसी ज्वाला है, जलधि में जो जगती,
इन चिर-रीतों को अधर से न लगाना!
मुँह लगते ये स्वर गले पड़ जाते हैं,
चरणों के ये बोल सिर चढ़ जाते हैं;
दिल पर बीतों को जुबाँ पर मत लाना!
इनका अपना क्या, पराया भी क्या है!
यों ही सपना था, गँवाया ही क्या है!
निर्मम प्रीतों को भुलाते ही जाना!