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मेरे घर की छाया-फूल / अमरेन्द्र

मेरे घर की छाया फूल
दीवारो, दर, पाया फूल

उसके बँधे हुए जूड़े में
मैंने एक लगाया फूल
 
फुलवारी-सी महक गई वह
मुझे देख कर लाया फूल

तुम धरती की नारी हो या
नभ का एक चुराया फूल

काँटे मुझसे बहुत लड़े हैं
जब भी एक बनाया फूल
 
बिन सोचे यह फूल कौन-सा
मैंने गले लगाया फूल

जंगल एक दिन जल जाएगा
तुमने अगर जलाया फूल

सबको है भरमाए रखता
सृष्टि पर है माया फूल

मैं काँटों पर बरसों दौड़ा
मेरे हिस्से आया फूल

तुमको अब मैं फूल कहूँगा
अंग-अंग है काया फूल
 
खुशबू को कैसे रोकोगे
माना हुआ पराया फूल

कब आओगे तुम वसन्त फिर
लगता नहीं अघाया फूल

लुटा चुका जब अपनी खुशबू
तब जा के मुरझाया फूल

मेरे दिल को चीर के देखा
तो लोगों ने पाया फूल

तुम तो फूलों से बढ़ निकले
देख तुम्हें ललचाया फूल

मैं दौड़ा परदेश से आया
आँगन में जब आया फूल

सबने सिक्के, सोने, चाँदी
मैंने मगर उठाया फूल

अमरेन्दर क्या खुशबू जाने
तुमने कभी बढ़ाया फूल।