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मेरे दादा, पिता और मैं / ओमप्रकाश सारस्वत

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मेरे दादा
लोग कहते हैं; वे जीवनभर
खेतों में कपास की तरह फूल कर
यश बिखेरते रहे
वे लोगों के मनों पर छाकर
रोम-रोम में बसते रहे
सूत-सूत होकर
वे अपने मौसम की
सबसे मंहंगी फसल थे

मेरे पिता
(जिन्हें लोगों ने ही नहीं
मैने खुद भी देखा है)
जो जीवन में
वर्ष-दर-वर्ष उगले रहे
गन्ने के सदृश
और बाँटते रहे
श्रम-संचित रस
कर्म के बेलने में
निष्पीड़ित होकर भी
लोगों में संवाद के समय
जिनकी ईमानदारी
आज भी गुड़ की तरह
बंटती है
और एक मैं हूँ
जिसे लगता है
कि वह
उस अवांछित पौधे के समान है
जो बासमती में
‘पल्लर’ कह के
तर्जित किया जाएगा

या उखाड़ कर
फेंक दिया जाएगा
बीड़ पर
खेत के किसी भी किनारे

जबकि मैं
लोगों पर
आसमान की तरह छाना चाहता हूँ
चाँदनी होकर
किन्तु लोग मुझे
धरती की तरह बिछा कर
रौंद डालना चाहते हैं
उस महिषपति के समान
जिसके साथ कई
मोटे भैंसे होते हैं