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मेरे सपनों में दीवारें नहीं आतीं / कल्पना पंत

बहुत से गुस्से को मैं पीती रही हूँ
उधारी के सुख में खुश रहने की
कोशिशों में जीती रही हूँ
मैंने आसमान को धरा पर लाने के
ख्वाब तो नहीं देखे थे
पर हर वक्त हर किसी रंग में रंग
जाने से मुझे हौल उठता था
अब भी मेरे सपने मेरे रंग का आकाश ढूँढते हैं
ढूँढते हैं उनमें समन्दर
तुम मन्थर-मन्थर उनमें आते हो
घर में मैंने कभी दीवारें और छतें नहीं चाही
क्योंकि उनसे न आकाश दीखता न समंदर
दीवारें एक दिन दिल की बदरंग दरारें बन जाती हैं
मुझे चाहिए अपना आसमान
घेरे लेती हैं मुझे अक्सर दीवारें
गुस्सा उबलता है
और उस उबलते गुस्से को पी-पीकर मर्म झुलसा जाता है
मैं उस गुस्से की कालिख़ से भी
प्यार लिखना चाहती हूँ
दीवारों दिल की दरारों से परे
नीलिमा के नीचे उछाल मारती लहरों-सी मुक्त खिलखिलाती हंसना चाहती
चाहे खुद के खिलाफ ही क्यों न खड़ा होना पड़े
अपनी मर्जी के रंग में रंगे रहना चाहती हूँ।