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मैं, तुम और वक्त / ऋचा दीपक कर्पे

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मसरूफ़ तो मैं भी हूँ
तेजी से भागती
इस भीड़ के साथ चलते हुए
कामयाबी की जंग में खुद को
झोंक दिया है मैंने भी
 
कभी पीछे रह जाती हूँ
तो कभी होती हूँ सबसे आगे
रोज की इस भाग- दौड़ में
उलझ कर रह गए हैं
रिश्तों के धागे
 
वक्त ही नही मिल पाता तुम्हें अब
अहसासों और जज़्बातों के लिए
सौ जिम्मेदारियाँ तुम्हीं पर हैं,
और तुम्हीं ने हैं हजारों वादे किये
 
तुम कहते हो,
अब कहाँ रहा वह दौर
इश्क मोहब्बत का!
अब नया आसमां
नयी उड़ाने हैं
यह भी पाना है
वहाँ तक जाना है
बदला है वक्त और
बदल रहा जमाना है...
 
ऐसा क्या मिल जाएगा
जो हम मिल भी लिये तो?
ऐसा क्या खो जाएगा
जो एक दिन बात ना की तो?
 
सच ही तो है तुम्हारा कहना...
अब और क्या मिल जाएगा
तुम से मिलने के बाद?
और खोने के लिए भी
बचा ही क्या है
दिल खो जाने के बाद !
 
मैं जानती हूँ कितना कीमती है
तुम्हारा एक- एक पल
इसीलिए तो...
तुम्हारी रफ्तार से
भाग रही हूँ मैं भी
मुझे भीड़ के साथ चलना ही है
गिर भी जाऊँ तो उठना ही है
क्योंकि उसी भीड़ का
एक हिस्सा हो तुम भी...
 
और...
तुम्हारे लिए जितना ज़रूरी है
जीतना पाना आगे बढ़ जाना
या पल भर रुक कर सांस लेना
बस उतना ही ज़रूरी है मेरे लिए
तुमसे बातें करना और
तुम्हारे साथ होना....
और तुम्हें याद करते हुए
सो जाना...