हुई भोर सुन
ओ मेरे मन के पाखी
कट ही गई
देखो ये अँधियारी रात
और भी कट जाएँगी ।
हम धो डालें
आओ उदासी
शीतल जल से
रख दूँ सिर पर हाथ
व्यथाएँ भी घट जाएँगी
मैंने तो सोचा था -मिटकर
घावों का मरहम बन जाऊँ,
पर कुछ भी तो हो न सका ।
छूकर तेरा तपता माथा
मैं दो पल को भी ,
तेरे हृदय का ताप
चाहकर धो न सका ।