भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैंने मरु में केशर बोयी/ गुलाब खंडेलवाल
Kavita Kosh से
मैंने मरु में केशर बोयी
नहीं एक भी अंकुर फूटा, सिकता लाख भिगोयी
निशिदिन नयन-नीर से सींचा
अंतर का कुल स्नेह उलीचा
गया मूल तो उसका नीचा
पर जग के हित खोयी
जो निर्गंध कनक के लोभी
उनको क्या, भू सुरभित हो भी
पर न दिखी जब रसिकों को भी
जागी पीड़ा सोयी
कितना भी पर आज उपेक्षित
है मुझमें विश्वास अपरिमित
इस सुगंध पर होगा मोहित
कभी कहीं तो कोई
मैंने मरु में केशर बोयी
नहीं एक भी अंकुर फूटा, सिकता लाख भिगोयी