मैंने सारे प्रश्न पढ़ लिये / राकेश खंडेलवाल
तुमने अपनी पलक उठा कर एक बार देखा था मुझको
मैंने सारे प्रश्न पढ़ लिए, अब कुछ भी अव्यक्त नहीं है
संशय के बढ़ते कोहरे की घिरती आती परछाईं में
विश्वासों के दीप-पुंज को तुम्हें प्रज्वलित करना होगा
तितली के पंखों पर जो हैं फूलों ने गंधों से लिख दी
पूर्ण समर्पित प्रणय पत्र की मृदु भाषा को पढ़ना होगा
वादी की बलखाती पगडंडी पर जो बने निशां हैं पग के
उनमें कोई एक हमारा भी है उसे चीन्हना होगा
आश्वासन को विश्वासों की चादर में पिरवतिर्त कर लो
समय सिंधु की शाश्वतता है पल भर की आसक्ति नहीं है
ढलती हुई सांझ के जो पल असमंजस में डूब रहे हैं
उनको दे पतवार आस्थाओं की तट पर ले आ जाओे
चातक और पपीहे के जो भटके पथ हैं बियावान में
विरहा की अग्नि में जलते स्वर को बासंती कर गाओे
स्वार्थ् और कतर्व्यपरायणता में जंग अभी है जारी
निश्चय तुमको ही करना है अब तुम किसको गले लगाओे
बिना अपेक्षित के देवों के चरणों पर आ फूल चढ़ाए
यह यथाथर् शाश्वत है प्रियवर, ऐसा कोई भक्त नहीं है
कमल-निशा के संबंधों के दृढ़ निश्चय को फिर दोहराएं
शाकुंतल अभिलाषाओं की फिर पावन गाथाएं गाएं
रंग बदलते दृश्य पटल पर सौगंधों की कूची लेकर
शिलालेख से अमिट काल के वक्षस्थल पर चित्र बनाएं
युग संधि की तरल भूमि पर जो सुमेरु बन कर दृढ़ रहते
आओे इस सिकता पर हम तुम फिर कुछ ऐसे कदम उठाएं
जो कुछ करना हमें आज ही करना वरना कल कह देगा
तुमने बहुत देर कर दी है अब बिल्कुल भी वक्त नहीं है