भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं उसे दोस्त बनाना चाहती थी / काजल भलोटिया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पर वह प्रेमी बन बैठा

प्रेमी बनने के पूर्व मैंने उससे कहा था
दोस्ती वह रिश्ता है जिसमें नाममात्र का भी स्वार्थ नहीं
प्रेमी बनकर एक वक़्त के बाद तुम मुझसे ऊब जाओगे!

वो मुझे सुनता रहा
फिर कुछ वक़्त ख़ामोश होकर उसने कहा
क्या जानती हो तुम प्रेम के बारे में

प्रेम होता है बारिश में छतरी बन जाना
जिसे ओढ़े उसके किनारे से झड़ती है
दुआएँ बूंद बूंद

प्रेम होता है दरवाज़े पर लटकी विंनडचाइम का
हवा की सरसराहट से देर तक हँस पड़ना
और उसका मीठी धुन में ज़ोर से गाना

उसने फिर मेरी तरफ़ देख एक बार मुस्कुराकर कहा
जानती हो...
प्रेम में होना समझदारी को परे रख पागलपन चुनना है
और कभी न ठीक होने वाले बुखार को जानबूझ कर
अपनी छाती से लगाना है
की प्रेम में देह तो बड़ी मामूली-सी बात होती है
इतना बोल वह चला गया

अब मैं उसकी अनुपस्थिति में
उसके कहे हर शब्दों के अर्थ सुनती हूँ
जो शायद जल्दबाजी में मैंने सुने ही नहीं थे

याद करती हूँ उसके चेहरे वह इत्मीनान वाले भाव
जब वह बड़े प्यार से मुझे छोटे बच्चे-सा समझा रहा था
ढूँढती हूँ स्मृतियों की छोटी छोटी लाल सुंदर लीचीयों में
उसकी मीठी तीखी-सी गंध
और चखती हूँ उसकी उन बातों का रस
जो बड़ी खट्टी मीठी हुआ करती थी

और मैंने बड़ी गहराई से उसे महसूस करते हुए ये जाना के किसी की अनुपस्थिति हमारे अंदर
निराकार रूप में अंत समय तक विद्यमान रहती है!