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मैं एक सपना देखता हूँ / अशोक कुमार पाण्डेय

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मैं एक सपना देखता हूँ
रात के इस तीसरे पहर जब सपनों को सो जाने के आदेश दिए जा चुके हैं
जब पहरेदारों ने कस दिए हैं मस्तिष्क के द्वार
जब सारे सपनों के हकीक़त बन जाने की अंतिम घोषणा की जा चुकी है
उन्माद और गुस्से की आखिरी खेप के नीलाम हो जाने की खुशी में बह रही है शराबें
शराबों की ज़हरीली महक से बेपरवाह
मैं एक सपना देखता हूँ....

मैं एक सपना देखता हूँ
जिसमें बिल्कुल सचमुच के इंसान है
खुशी, दुःख और गुस्से से भरे हुए
जब होठों और मुसकराहट के बीच फंसा दिए गए हैं तमाम सौंदर्य प्रसाधनों के फच्चर
मैं उन लहूलुहान होठों से झरते गीतों की रुपहली आवाज़ सुनता हूँ

मैं देखता हूँ इस निस्सीम विस्तार के उस पार
मैं देखता हूँ इस भव्य इमारत का झरता हुआ पलस्तर
मैं रास्ते में गिरे हुए चेहरे देखता हूँ
मैं देखता हूँ लहू के निशान, पसीने की गंध, आंसूओं के पनीले धब्बे
मैं इस शव सी सफ़ेद सड़क से चुपचाप बहती पीब देखता हूँ
मेरा देखना एक गुनाह है इन दिनों
मैं सपने में इन गुनाहों की तामीर देखता हूँ

वहाँ दूर उस तरफ एक बागीचा है जिसमें अब तक बचा हुआ है हरा रंग, वह निशाने पर है
वहाँ एक बावड़ी है पुरानी जिसमें अब तक बचा हुआ है नीला पानी, वह निशाने पर है
वहाँ एक पहाड़ है जिसमें अब भी बची हुई है थोड़ी सी बर्फ़, वह निशाने पर है
वहाँ एक नदी है जिसके सीने में अब भी बचे हुए हैं थोड़े सीपी, वह निशाने पर है
वहाँ एक घर है जिसकी रसोई में बची हुई है थोड़ी सी आग, वह निशाने पर है
और ऐसे में अपने बचे हुए सपनों के साथ मैं घूमता हूँ
इस बियाबान में अपने डरों के श्वेत अश्व पर सवार

मैं अपराधी हूँ इस शांत, इकरंगे समय के आक्षितिज फैले विस्तार का
मेरे सपने इस पर बिखेर देते हैं राई के दानों सी रपटीली असुविधा
क्षितिज पर जाकर चुपचाप देख आते हैं इसकी सीमाओं के पार का धूसर मैदान
रात को रौशन कर आते हैं चुपचाप और जलते हुए दिन पर तान देते हैं बादल का एक टुकड़ा
एक लुप्तप्राय शब्द का अभिषेक कर आते हैं अपनी खामोशियों से
और हजार मील प्रति घंटा दौड़ती रेल में बैठे एक मनुष्य के माथों के बलों के बीच खींच देते हैं एक सुनहरी रेखा

मैं देखता हूँ सपने और हवाओं में घुले ज़हर में घुलने लगती है आक्सीजन
मैं देखता हूँ सपने और विकास दरों के रपटीले पर्वतों में दरारें उभरने लगती हैं
गहराने लगता है नदी का नीला रंग
पर्वतों पर पसरने लगती है बर्फ़
चूल्हों में सुलगने लगती हैं लुत्तियाँ...

व्हाईट हाउस से जुड़े संसद भवन के बेतार के तार के बीच
किसी व्यवधान की तरह घुसती हैं मेरी स्वप्न तरंगें
मैं ठठा कर हंसता हूँ किसी उन्मादी की तरह और मेरी चोटिल देह से झरते हैं सपने
मैं देखता हूँ उनकी आँखों में पसरता हुआ डर
और क्या बताऊँ फिर किस उमंग से देखता हूँ क्या-क्या सपने