मैं और तुम / ऋचा दीपक कर्पे
तुम शिशिर-से ठंडे
मैं वसंत-सी उत्साहित
तुम्हे चाहिए कैनवास
बर्फ-सा सफेद
जिसमें भर सको तुम
रंग मनपसंद...!
मुझे चाहिए कोयल की कूक
पक्षियों का कलरव
गुनगुनाते भँवरे
गुनने को एक नया छंद!
तुम मकर राशी के उस ओर
कोहरे की चादर में लिपटे
सूर्य ताप से दूरी बनाए
मैं मकर राशी के इस ओर
सूर्य किरणों के लिए
बाहें फैलाए...
तुम बर्फीली हवा
मैं चंचल मस्त पवन
तुम ठिठुरन तुम सिहरन...
मैं मस्ती भरी बसंती बयार
तुम देते मेरी कविता को
आकृति रंग और आकार
और मैं तुम्हारे चित्रों का स्वर
मात्रा, अक्षर और मैं ही अनुस्वार...
तुम्हारी ठंडक से ही
लेती गर्माहट मेरी कलम
मेरी भावनाएँ
मेरे शब्दों के लगा पंख
भरे उड़ान तुम्हारी तुलिका
तुम्हारी कल्पनाएँ...
तुम रंग भरे बादल
मैं शब्दों की झील
तुम हलके मैं गहरी
तुम गतिमान मैं ठहरी
अलग हैं हमारे अंदाज
रास्ते और ठिकाने अनेक हैं
पर तुम्हारे चित्र और मेरी कविताएँ
ठहर जाती है जहाँ आकर,
उजला-सा सफेद...
वह कागज तो एक है!