मैं जब भी लिखूंगी प्रेम ३ / शैलजा पाठक
मैं जब भी लिखूंगी प्रेम
घर के अंदर रहने वाली औरत को लिखूंगी
जो करती रहती है रखवाली कीमती सामान की
सहेजती समेटती है मुश्किलें
जो जानती है खाने का स्वाद
जो समझती है मसालों का सही अनुपात
जब बनाती है अचार
जो पोंछती रहती है सारा दिन घर की धूल-मिट्टी
पर अपने ही घर में मैली होती है बार-बार
मैं जब भी लिखूंगी प्रेम
तुम्हारे हर दस्तक पर बस दरवाज़ा नहीं खोलेगी औरत
तुम्हारी दहलीज़ पर
अपने सपनों की रंगोली बना नहीं खींच लेगी
अपना पैर घर के अंदर
अब की वो बाहर जाएगी
अपने हिस्से का आकाश खरीदने
अपने हिस्से की नदी में अपना पैर भिगाती सी गुनगुनायेगी
अपने पसंद के मौसम को तोल मोल कर बांध लेगी
अपने पल्लू से
हवाओं के सरगम पर झूमेंगे उसके सपने
अब तुम्हारी दीवारों में कैद वो घर का भरम नहीं पालेगी
तुम्हारी स्थिति-परिस्थिति उतार-चढ़ाव घर बच्चे से
उलझती औरत आज बाहर जायेगी
मैं जब लिखूंगी प्रेम
औरतें घर देर से आएंगी
तुम दरवाजा खोलना।