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मैं नारी हूँ! / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

मैं नारी हूँ उजियारी हूँ,
फूलों से सज्जित क्यारी हूँ।
जीवन का अपने कठिन-पंथ
चलती हूँ पंथ-दुलारी हूँ।

मैं हूँ ममता की मूर्ति एक,
मैं ही कहलाती हूँ माता।
स्नेहिल राखी के बंधन में,
सारा जग मुझसे बँध जाता।

मैं ही वह विमल वल्लरी हूँ,
जिसमें नूतन प्रसून खिलते।
मैं ही वह प्रबल प्रांगण हूँ,
जिसमें शेखर बिस्मिल पलते।

मैं ही वट की शीतल छाया,
जिसमें विश्राम पंथ करते।
मेरे ही तट का सुखद नीर,
कर पान तृप्ति पाते रहते।

मैं ने हिमाद्रि से वारिधि तक,
देखे नदियों के तट पुनीत।
आश्रय लहरों में मिल जाता,
जब भरती मन में घृणा, भीत।

उत्थान पतन के रूपों को,
मैंने सैंकड़ों बार देखा।
बनती मिटती ही रही सदा,
आशा की सरल सहज रेखा।

पर नहीं क्रोध की दीपशिखा,
होकर ज्वालायम उमड़ सकी।
इसलिए दया, करुणा, ममता
मेरे अंचल में रची-बसी।

मेरे अंचल की छाया में,
हैं पले वीर गाँधी सुभाष
जीवनोन्नयन का पथ प्रशस्त
होगा इनसे थी सहज आस।

आंशिक स्वतन्त्रता दे करके,
दल बल से चले गये वे सब।
मैं भटक रही हूँ दुखिया-सी,
यह जीवन होगा उन्नत कब?

मैं ही वह धवल चाँदनी हूँ
मैं ही राकापति कान्तिमान।
मैं ही तारों की झिलमिल हूँ
मैं ही निशान्त का मधुरगान।

वीणा के तारों-सा बजता
मेरे अन्तस का तलतरंग
मेरा विराट व्यक्तित्व
बाँटता रहता है नूतन उमंग।

मेरी गोदी में रामकृष्ण,
गौतम, गाँधी सब खेले हैं।
शेखर, बिस्मिल, अशफ़ाक, भगत
ने कष्ट हजारों झेले हैं।

जब-जब करती हूँ याद उन्हे,
तब-तब हो जाते दृग सनीर।
क्रोधाग्नि भड़क उठती प्रचण्ड,
हो जाता हृदयस्थल अधीर।

बेटों की वह निर्मम हत्या,
सालती सदा ही रहती है
क्यों नहीं बना तू रण-वितुण्ड
भावना क्रोध से कहती है।

मेरा ही शुभ स्पर्श पाकर,
बन जाते मोती श्रमसीकर
खिल जाते हैं उत्फुल्ल कमल
मेरी ही रूपसुधा पीकर।

लगती है रजत तन्त्रिका-सी
फसलों पर शबनम की जाली।
मिट जाता हे तम-तोम विकट
जगते प्रभात की उजियाली।

मैं ही ऊषा की प्रथम किरण,
बनकर गिरि पर विचरण करती
पत्थर-पत्थर को कर स्पर्श,
कंचनित नित्य करती रहती।

जीवन तो मेरा सदा गया,
विश्वासघात के मृदु स्वर में।
पर उन्नत होता रहा निरन्तर,
सहज प्रेम उदर-अन्तर में।

मैंने गंगा बन युग-युग में
जड़ चेतन को उद्धारा है।
पुरखों के तर्पण हेतु सजल,
मेरा ही निर्मल द्वारा है।

मैंने क्षत्राणी बनकर ही,
जौहर-व्रत धारे बार-बार।
कुल मर्यादा संरक्षण में,
सर्वस्व तन-मन-धन हैं निसार।

मेरे शरीर की राख, जन्म
देती आयी अंगारों को।
जो रहे फूँकते दुश्मन की
लंका के स्वर्णिम द्वारों को।

मैंने देखा आक्रमण सिकन्दर,
विश्व-विजेता का प्रचण्ड।
मैंने देखे हैं अडिग वीर
पोरस महान से शिलाखण्ड

तलवार वेग जिसका
आक्रान्ता के समक्ष था रूका नहीं।
जकड़ा था सुदृढ़ बन्धनों में,
वह शेर किन्तु था झुका नहीं।

आरती कृपाणों पर मेरी
राणा प्रताप करते आये।
मुगलों की तलवारों पर जो
भारी सदैव पड़ते आये।

अब्दाली, नादिरशाह और
महमूदी-दल भी देखा है।
मैंने अकबर की कूट नीति
बाबर का छल भी देखा है।

असहायों की निर्मम हत्या,
उर उद्वेलित कर देती है।
सोये-सोये मन-प्राणों में
प्रेरणा नवल भर देती है।

उद्गम से संगम तक मैंने
धारे हैं कितने रूप नये।
रण-उत्सव से घर-आँगन
तक बदले हैं बाने नित्य नये।

भारत में अँगरेजी शासन
था चला सैंकड़ों वर्ष और -
दूषित शासन ने किया बन्धु!
दूषित स्वदेश का ठौर-ठौर।

मुझसे यह देखा नहीं गया
बन लक्ष्मीबाई उमड़ पड़ी।
अट्ठारह सौर सत्तावन में
बदली-सी अरि पर घुमड़ पड़ी।

लम्बी सीमा तक विजय -केतु
मैंने फहराये झाँसी के।
सौंपे बंदी अँगरेजों को
मैंने ही फन्दे फाँसी के।

लड़ते थे प्राण हथेली पर
लेकर वे रणबांकुरे प्रबल।
जिनकी तलवारों पर पानी
था रखा स्वयं गंगा ने चल।

मैंने देखा वह दिवस, पड़ी -
थी तलवारें मैदानों में
कवि थे, कविता थी, और
नवल जाग्रति थी उनके गानों में।
था नहीं बचा जीवन रक्त,
जे प्रेरित होकर जल उठता।
उन गौरांगों को हव्य जान
धू-धू कर स्वाहा कर उठता।

फिर मुझसे प्रेरित होकर के
विद्रोह देश में भड़क उठा।
मानो शिव का तीसरा नेत्र
क्रोधित होकर था भड़क उठा।

हिल गयी जड़ें अँगरेजों की
आपस में भी सुलगा विवाद।
भारत के कोने-कोने में
था महाक्रान्ति का शंखनाद।

था काँप गया गोरा शासन
सन्धियाँ हुई डर के मारे।
रण सिंह राष्ट्र के जाग उठे
भर कर मेघों-सी हुंकारें।

थी गूँज उठी कण-कण से
जय-जय भारत माता की बोली।
भारत का बच्चा बच्चा था, फिर -
खेल उठा खूनी होली।

भारती-भारती को अपनी
वीणा से थी टंकार उठी।
धरती के कण-कण से मानो
नूतन अजेय हुंकार उठी।

मेरे श्रोणित का बूँद-बूँद
बन गया प्रेरणा का प्रताप।
बलिदान हमारा जगा गया
वट राष्ट्र विशद के पात-पात।
अपनी विराटता में पाया
मैंने समग्र जग का दर्शन।
मेरा चरित्र है शुभ्र श्रेष्ठ
स्नेहिल मानवता का दर्पण