मैं मक़बूल / सीमा संगसार
कुंची में है रंग इतना भरा
कि मैं रंग सकता हूँ
पंढरपुर की दीवारों को ही नहीं
मुंबई की रिहायशी बस्तियों को भी
ओर / खिंच सकता हूँ खाका
इस्लामाबाद से लेकर
लंदन की गलियों तक का...
मेरी ज़मीन इतनी छोटी भी नहीं की
समा जाती मेरी रंगीन दुनिया
एक भू खंड में...
देशनिकाला तुमने मुझे नहीं
कला को दिया
अपनी संस्कृति को दिया
नग्नता देखने की आदी
तुम्हारी आँखे
द्रोण और भीष्म की तरह चुपचाप
देखा करतीं है
जब भरी सभा में
द्रोपदी की नग्न देह पर
बिछता है चौसर...
मैं मकबूल
कबूल करता हूँ की
मैंने तुम्हारी आँखों की पट्टी खोली है
ताकि तुम देख सको
हस्तिनापुर का सच
तुम देख सको अग्नि में जलता हुआ सीता का शारीर
तुम देख सको
रामायण व महाभारत के उन किस्सों को
जिन्हें तुम नहीं देख सकते
अपनी नंगी आँखों से...
मैं मकबूल
एक सजायाफ्ता कैदी
गुनाहगार हूँ
तुम्हारी भारत माता के
जिनके चिथड़े वस्त्रों पर
मैंने चलाई है अपनी कुंची
मैं मकबूल
धुल फांकता रहा परदेसों में
अपने देश की मिटटी बुलाती रही मुझे...
तुमने मुझे ज़मीन का दो गज टुकड़ा
देना मुनासिब नहीं समझा
मुझे दफ़न करने के लिए
मैंने तुम्हे सारा जहाँ दे दिया...
मैं मकबूल
फ़िदा हूँ आज भी अपने वतन पर
और मैं गाता हूँ
सारा जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा...