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मैं मार दी जाऊँगी / निर्मला सिंह
Kavita Kosh से
मेरी आग बरसाती आँखें
कसती भिंचभिंचाती मुठि्ठयाँ
कंपकंपाते-फरफराते होंठ
थरथराता-क्रोधित शरीर
जबाब दे बैठता है,
जब खंडहरों में चीखते हैं
मासूम आहत परिन्दे
सियासियों, सत्ताधारियों की
इमारतों में कैद
बिलखती-तड़पती हैं
भुखमरी, बेचारगी, लाचारी की
चादर ओढ़े
मेहनतकशों की देह
मेरी अपनी ही आँखों में
गुम हो जाते हैं
अपनी पलकों पर सजे
बेकसूर रंगीन सपने
और मुझे गांधारी बना दिया जाता है
चारों ओर की चीखें-चिल्लाहटें
मेरे कानों की परतों को
फाड़ रही हैं फिर भी मैं बहरी हूँ
गिद्ध और बाज से शैतान
व्यस्त हैं
इन्सानियत को नोंचने-कुतरने में
फिर भी मैं गूँगी हूँ
बोल नहीं सकती,
सम्पूर्ण विकलांगता ही
मेरे जीने का कारण है
जिस दिन मेरी अपंगता
समाप्त हो जाएगी
मैं, मार दी जाऊँगी।