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मैं हूँ प्रेम रोगी / संतोषानन्द
Kavita Kosh से
अरे कुछ नहीं, कुछ नहीं
फिर कुछ नहीं है भाता, जब रोग ये लग जाता
मैं हूँ प्रेमरोगी, मेरी दवा तो कराओ
जाओ, जाओ, जाओ, किसी वैद्य को बुलाओ
सोच रहा हूँ जग क्या होता, इसमें अगर ये प्यार न होता
मौसम का अहसास न होता, गुल-गुलशन गुलज़ार न होता
होने को कुछ भी होता पर, ये सुन्दर संसार न होता
मेरे इन ख़यालों में तुम भी डूब जाओ...
यारो ! है वो क़िस्मत वाला, प्रेमरोग जिसे लग जाता है
सुख-दुख का उसे होश नहीं है, अपनी लौ में रम जाता है
हर पल ख़ुद ही ख़ुद हँसता है, हर पल ख़ुद ही ख़ुद रोता है
यह रोग लाइलाज सही, फिर भी कुछ कराओ...
और नहीं तो कुछ, मेरे यार को बुलाओ, दवा तो कराओ
मैं हूँ प्रेमरोगी, मेरी दवा तो कराओ
जाओ, जाओ, जाओ, किसी वैद्य को बुलाओ...
फ़िल्म : प्रेमरोग (1982)