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मोड़ / नरेश चंद्रकर
Kavita Kosh से
तुम गन्ध की तरह फैल गई हो
सैकड़ों स्पर्श पड़े हैं स्मृतियों में
खूब अगिन चुम्बन फैल गए हैं
रोओं के असँख्य छुअन हमारे पास हैं अब
तुम रास्ता न था इसलिये नहीं आईं इधर तक
रास्ते तो अब बने हैं
तुम्हारे और मेरे पद-चिह्नों से
हमारी अनगिन छोड़ी इच्छाओं और अधूरी छोड़ी गई नींदों से
तुम सच में भी
चलते हुए रास्ते को अधूरा छोड़कर नहीं आईं इधर
बाक़ायदा मोड़ लिया है !!