भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मोर गाँव / पीसी लाल यादव
Kavita Kosh से
मोर गाँव, पिरित के छाँव, अबड़ नीक लागे।
मंदरस कस गुरतुर भाखा, अबड़ मीठ लागे॥
राचर-बेंस के चर्र-चूँ बाजे,
तब जागे सुरूज देवता।
सोन किरन के छरा-छिटका
देवय जांगर पेरे के नेवता॥
ये अनपूरना दाई के पाँव, अबड़ नीक लागे।
मोर गाँव, पिरित के छाँव, अबड़ लनक लागे।
नांगर-जुड़ा बोहे किसनहा
बाजय बईला के घाँटी।
देंह ले ओगरे पछीना तर-तर
ममहाय महतारी-माटी।
ये लछमी दाई के पाँव, अबड़ नीक लागे
मोर गाँव, पिरित के छाँव, अबड़ लनक लागे।
घाट-घरौंदा के खेत-खार म
बाजय बरदिहा के बँसरी।
आमा डार में कुहके-कोइली,
सुवा-मैना पारे सिसरी॥
सुख-सुम्मत सुन्ता नियाँव, अबड़ नीक लागे
मोर गाँव, पिरित के छाँव, अबड़ लनक लागे।