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मौन / शशि सहगल

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आजकल अक्सर
नींद नहीं आती रात को
मन यूं ही बचैन-सा रहता है
लेटे लेटे
कौंधती हैं ज़हन में कुछ यादें
जैसे छलांगें लगा रही हों
मन के आंगन में
और आँगन बंट जाता है
बचपन और जवानी के पलों में।
ख़्यालों की गेंद
दोनों पालों में चली जाती है आज़ादी से
सब को शक की नज़र से देखना
जहाँ आदत होती है जवानी की
वही बचपन
भरोसा कर लेता है
हर प्यार करने वाले पर
बांध लेता है
अपनेपन की पक्की गाँठ
इसीलिए बचपन होता है
असलियत के निकट
सच्चाई के बहुत पास
दूसरे के दुःख में बच्चा
तभी हो जाता है अवाक्।

बचपन की कई यादें
चलचित्र सी सामने आती जाती हैं
कंकालनुमा वह काली ईसाई औरत
गंदा सा लम्बा फ्रॉक पहने
पालतू मुर्गियों के पीछे भागती
हर चूज़े पर अपनी ममता उंडेलती।
जब-जब अपने क्रूर पति से पिट कर
मैं उसके पास होती
अपनी आँखों से ही
आश्वस्त कर देती मुझे।
आज भी मेरे ज़हन में बसी है
उसकी रसोई में कड़वे तेल के छौंक की बास
और
मुझे हँसाने के लिए
काली डंडीनुमा बांहों को फैलाकर
उसका गाना
राजा के लम्बे-लम्बे सींग
किन्ने कहा? किन्ने कहा?
बबन हजामन, बबन हजामन
खिलखिलाकर हँसाते हुए
बचपन के उन बेसहारा दिनों में उसने
जब दिलायी थी राहत
बचपन का प्यार
इसीलिये तो रहता है सदा याद
पर होता है वह
शब्दातीत।