यहाँ / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय
वह नागरिक धूसर जीवन को
पीछे छोड़,
सबसे तेज़ ट्रेन पकड़कर आज
यहाँ आ पहुँचा,
-आसनसोल में।
यहाँ का आकाश पहाड़ की देह पर
पड़ा है औंधा
पहाड़ की देह पर उगी हैं क़तार-दर-क़तार
काली चिमनियाँ।
आसपास सोये पड़े हैं धान के खेत
चारों ओर-
चौक़न्ने कान सुन रहे हैं
हँसिये की धार तेज़ करने की आवाज़
लुहार-घरों में?
ऊँची-नीची लहरदार चटियल ज़मीन
दूर-दूर मैदानों तक पैदल निकल गयी है
छोटी-छोटी घास, सिर पर जिनके
शायद ओस झिलमिला रही है।
दोनों ओर-दूर-दूर फेले रेतीले इलाके
बीच में बहती नदी
रुक-रुक लेती साँस पाँव में खींच-खींच जाती है
चिकनी रेख।
सुनसान मैदान
अचानक दीख पड़ती है तार की बाड़;
साँप-सी बलखाती रेल की पटरियाँ चली गयी हैं
सुदूर अंचल में।
दिन-भर पहरा देता सूरज
शाम बीतते उतरता नज़र आता है
अपने भारी-भरकम डेने फेलाये
काले पहाड़ से
-आँखों में थकान लिये।
ताड़ीख़ाने खुल गये हैं अब;
सड़कों पर लोगों का हुजूम जमा है।
औरत और मर्द मिलते-बतियाते हैं आमने-सामने
सिर्फ़ चुक्कड़ पर।
किसी-किसी से यह गन्दी लत
छीन लेती है, आखिरी कौड़ी तक।
तब, बहुत-बहुत दिनों का भूला-बिसरा गाँव
और पुराना ठीहा
याद आता है।
दूर खड़ा शीशम का पेड़; जिससे सटे हैं
धान के खेत
कुछ नहीं है, तो भी ये सब
कैसे-कैसे सपने बुन देते हैं।
किसी पराये घोंसले को छोड़
यहाँ आया मैं सोचता हूँ
सिनेमाघरों से पटी राजधानी में ही
मैं अच्छा भला था
जिनका ख़ून कारख़ाने के धुएँ से मिलकर
उड़ रहा आकाश में-
मुट्ठी-भर ख़यालों से भरी
यह दुनिया
-उनकी भूलभुलैया है।