भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यह अकेले का सफर है / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
यह अकेले का सफर है,
साथ कुछ भी है, तो डर है।
क्या पता उस घोर वन में
साँस लेना भी कठिन हो,
रात हो भयभीत जिससे
इस तरह का भोर-दिन हो;
चेतना थक मूंद पलकें
सो रहे, जागे न फिर से,
वह गली भी बन्द पाऊँ
रोशनी आती जिधर से।
लड़ रहा हूँ कर्ण-सा मैं
आखिरी मेरा समर है ।
कौन-सी छाया उभरती
पुतलियों के पार तम में,
यह नियति का खेल ही है
जो विषम है, आज सम में;
उम्र भर आखें चुराईं
यम-नियम के लोक-डर से,
जा छुपा था सुख-विपिन में
दुःख, निराशा, शोक-डर से।
क्यों नहीं जाना ये पहले-
जब नदी है, तो भँवर है ।