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यह कोई आखिरी बसंत नहीं / गोविन्द कुमार 'गुंजन'

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मैं लाता हूँ
हृदय से एक गीत अधरों तक
एक दिन वह गीत हवाओं में खो जाएगा

मैं रचता हॅूं एक कविता
एक दिन वह भी बिखर जाएगी कहीं
चिथड़ा चिथड़ा होकर

मैं लाता हूँउसके अधरों के लिए एक चुंबन
यह भी भुला दिया जाएगा एक दिन

मुझे पता है सभी चीजे
एक न एक दिन खो जाएगी
फिर भी मैं जारी रखता हॅू अपने हांेठों पर गीत लाना
कागजों पर कविता रचना
उसके अधरों के लिए मधुर चुबंनों का लाना

एक दिन
मैं भी हो जाउगा इसी तरह
इस शून्य में गुम कहीं
मगर न कोई बसंत आखिरी होता है
न कोई पतझड़

गुम होने से पहले
हर मौसम को खिलना होता है भरपूर
इसलिए अपने होंठों के लिए
मैं लाता हूँ एक गीत