भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यह भी सच है / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह भी सच है
सबका आँगन एक नहीं है
 
अलग-अलग हैं
मंदिर-मस्जिद के उजियारे
'सबका मालिक एक' -
हुए उसके बँटवारे
 
मुल्ला-पंडित
दोनों की मति नेक नहीं है
 
सूरज बँटा
जोत भी उसकी बड़ी पुरानी
खारी हुआ
ताल-पोखर-नदियों का पानी
 
सीधी-सादी
भजन-नात की टेक नहीं है
 
नया मर्ज़ है
चौराहों पर निबटारे का
लोग हवाला देते हैं
टूटे तारे का
 
घना अँधेरा
कहीं जोत की रेख नहीं है