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यह यात्रा रही विकट / कुमार रवींद्र
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यह यात्रा रही विकट
बार-बार
अनी चुभी पाँव में
गाँव- नगर सभी मिले
बरछों से बिंधे हुए
आँसू में भीगे दिन
और गले रुँधे हुए
अंतिम दिन
लूटे-पिटे पहुँचे हम
अंधों के गाँव में
रस्ते में एक झील
हमें मिली जहरीली
उसमें हम डूबे थे
देह अभी भी गीली
पार नहीं हुई झील
बैठे थे हम
कच्ची माटी की नाव में
खोजे से नहीं मिली
वंशीधुन- कुंज गली
भंते, है यही सत्य
होता है काल बली
आखिर में अपनी भी
साँस गई
कौड़ी के भाव में